चरवाहे का बचपन(कविता)


 चरवाहे का बचपन


जब कुछ होश संभाला मैंने,

अपने को वन में पाया।

हरि भूमि पर कहीं धूप थी,

और कहीं गहरी छाया।

 एक भैंस, दो गाय लेकर

 दिन भर उन्हें चराता था।

 घर आकर नाश्ते में मां से

 दूध पावर पीता था।


देख किसी का ठाठ ना हमको

ईश्या कभी सताती थी।

और ना अपनी दिन दशा पर

लज्जा ही कुछ आती थी।


मानो उन्हें वही थोडा है,

और हमें है बहुत यही।

जो कुछ तो लिखो बाल आया है, 

पाएगा वह सदा वहीं।


मुझसे ही मेरे साथ थे,

सब मिलकर खेला करते।

कभी चौकड़ी भरते बन में,

कभी दंड पेला करते।


मन निर्मल था, तन पर 

जो कुछ आ पड़ता, झेला करते।

गुजारिश करते जंगल को,

दुख दूर ठेला करते।

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