आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व की बात है।काशी नगर का एक उज्जवल प्रभात था। अभी तक सूर्योदय नहीं हुआ था।धर्म और संस्कृत के इस प्राचीन केंद्र में अभी तक इतनी हलचल या शोरगुल नहीं हुआ था।गंगा में स्नान करने के लिए उत्सुक व्यक्ति की एक दो की संख्या में सड़क पर आते जाते दिखाई पड़ रहे थे।एक लगभग 25 या 26 वर्ष का सुंदर शोम्या युवक सन्यासी भी अकेला ही दुर्गा बाड़ी की ओर बढ़ा जा रहा था। उसने एक लंबा अंगरखा पहन रखा था। जिसकी जेब काफी भरी हुई लग रही थी। संभवत उसमें कोई बड़ी सी पुस्तक रखी हुई हुई थी।गहरे चिंतन में डूबा हुआ। वह सन्यासी बिना किसी और देखें अपने रास्ते पर चला जा रहा था। एकाएक उसे चारों ओर से बंदरों ने घेर रखा था। असंभव उसकी दृष्टि सन्यासी की भरी हुई जेब पर थी। सन्यासी ने इनका घेरा तोड़कर बच निकलने की चेष्टा की, किंतु बंदरों का घेराव और भी ज्यादा पकड़ने लगा। घबरा कर सन्यासी भागने लगा। लेकिन उस विगत उनसे पीछा छुड़ाना कठिन जान पड़ता था। वे तो उस पर टूट पड़ते को तैयार थे। सहसा सन्यासी को किसी की ललकार सुनाई पड़ी भागो मत,सम्मान करो!"
युवा सन्यासी दृष्टि उठाकर देखा तो सामने से एक वृद्ध साधु चले आ रहे थे। उसकी बात समझ में आ गई, पलायन का निश्चय छोड़कर सन्यासी मुड़ा और बंदरों की भीड़ से संघर्ष करने के लिए अड़ गया।
कुछ ही देर में उधमी बंदरों की भीड़ मैदान छोड़कर भाग निकली। सन्यासी बड़ी जोर से हंस पड़ा।वह बंदरों पर अपनी विजय की उपलब्धि से नहीं बल्कि ज्ञान की छोटी किरण की उपलब्धि से उसे लगा। मानो इस छोटी सी घटना से उसे जीवन के पथ पर निर्वस्त्र आगे बढ़ते जाने का नया शक्तिशाली संभल प्राप्त हो गया।
इसी ज्ञान बोध का उपयोग उस सन्यासी ने आगे चलकर कुछ समर्थ सिद्धांत वाक्य में किया। अज्ञान का सामना करो,माया और धर्म से संघर्ष करो पलायन नहीं आदि।
और इस घटना की केबल 5 वर्ष पश्चात 1893 शिकागो की एक विश्व धर्म सभा को अपने प्रखर ज्ञान से चमत्कारिक कर देने वाले, छोटी उम्र के सन्यासी कोई और नहीं अपितु स्वामी विवेकानंद थे।
Note- स्वामी विवेकानंद जैसा विद्वान,बुद्धिमान व्यक्ति ना कभी हुआ है ना कभी होगा।