कला का घमंड़।


  मुगल सम्राट अकबर के शासन काल की बात है उसकी राजधानी आगरा थी साधुओं की एक टोली ने आगरा में प्रवेश किया।



 घूमते घूमते वे किले के सामने पहुंचे।वहां लोगों की भीड़ देख कर दे एक पेड़ के नीचे बैठकर हरि कीर्तन करने लगे। हरि कीर्तन की मधुर स्वर लहरी पहरेदार के कानों में पड़ी तो वह दौड़कर आया और बोला- बंद करो! यह गाना, चलो दरबार में बादशाह के सामने गाना होगा।अगर मियां तानसेन से बढ़कर गा सके तो मालामाल हो जाओगे ,वरना सजा-ए-मौत।


सजा-ए-मौत! साधुओं को पसीना आ गया और बोले - भाई


 हम क्या जाने संगीत क्या होता है। हम तो प्रभु का कीर्तन करते हैं। हम मियां तानसेन का क्या मुकाबला कर सकते हैं लो कीर्तन बंद कर देते हैं।


नहीं !तुम्हें बादशाह के पास आना ही होगा। पहरेदार ने रौब से कहा। साधु दरबार में गए,उन्हें गाना ही पड़ा ।उस गाने में संगीत ज्ञान नहीं, सुनकर दरबारी लोग हंसने लगे संगीत सम्राट तानसेन मुस्कुरा उठे।



 अदब से खड़े होकर बोले- जहांपनाह साधु है यह संगीत क्या जाने ? इनकी जान बख्शी जाए। नहीं तो कलंक लगेगा। हां इन्हें सल्तनत ए मुगलिया कि हद से निकाल दिया जाय।


अकबर ने तानसेन की प्रार्थना मंजूर कर ली। साधु को मुगल साम्राज्य की सीमा से बाहर कर दिया। उन साधुओं में एक किशोर साधु भी था, ऐसी अनुचित आज्ञा सुनकर उसका खून खौल उठा। पर वह विवश था। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की, कि मैं कभी तानसेन का मुकाबला जरूर करूंगा। कला किसी की बपौती नहीं होती। वह साधना है,मैं कला की साधना करूंगा। 


किशोर साधु का नाम बैजनाथ था, साधु उसे प्यार से बैजू कहते थे।


 संकल्प ही सिद्धि की पहली सीढ़ी है। बैजू पर संगीत ज्ञान प्राप्त करने की ऐसी धुन सवार हुई कि वह बरसों तक सच्चे गुरु की तलाश में दर-दर की खाक छानता फिरा। अंत में वृंदावन में गुरु हरिदास की शरण में पहुंचकर वही रम गया।स्वामी हरिदास तानसेन के भी गुरु थे।


संगीत कि साधना तलवार की धार पर खेलने के समान है। जरा चुके की साधना भ्रष्ट हो जाती है,पर बैजू को सच्ची लगन थी। कुछ दिन ही उसे अपनी प्रतिभा याद रही, पर बाद में संगीत की शांत और कोमल लहरियों ने द्वेष रूपी कलूष धो दिया है। हृदय कि निर्मलता और निराभिमानता से बैजू की कला निष्कलुश हो चमक उठी। गुरु की कुटिया से उड़ती हुई संगीत की तरंगे सामने बहती हुई यमुना की तरंगों को भी चंचल कर देती। बैजू की कला साधना पूर्ण हुई,गुरु हरिदास अपने शिशु की कला सिद्धि को देखकर संतोष से भर उठे। वे इस युवक को प्यार से बाबरा कहते थे, बैजू बावरा।


गुरु हरिदास की आज्ञा से बैजू ने अजीबीका की खोज में वृंदावन छोड़ दिया।एक तानपुरा और कमंडल ही उसकी संपत्ति थी। जब मन होता जहां चाहे जहां बैठ जाता और स्वर साधना में लीन हो जाता।न तन कि सुधि, न भोजन की,जो कुछ मिल जाता खा लेता ना मिलता तो संगीत रस पीकर ही रह जाता।वह संगीत के पीछे बाबरा हो उठा था।


सहयोग की बात,बैजू घूमता घूमता आगरा जा निकला। किले के सामने पहुंचते ही 10 वर्ष पूर्व की एक घटना याद हो आई, बस फिर क्या था वहीं पेड़ के नीचे बैठ गया और फिर उसी प्रकार दरबार में बुलावा आया।


अकबर ने कहा -गाओ गायक,पर ध्यान रखना हमारी शर्त है......


जानता हूं,जहांपना। अकबर की बात बीच में ही काट कर बैजू - बोला पर पहले मियां तानसेन अपनी कला दिखाएं।


दरबार में सन्नाटा छा गया।अकबर के तेवर चढ़ गए ।गंभीर होकर बोला - मंजूर।शुरू हो इशारा तानसेन की ओर था।


: बैजू तन्मय होकर गाने लगा। दरबारी झूमने लगे। अकबर रोमांचित हो उठा।तानसेन सब राग द्वेष भूल कर, संगीत समाधि में डूब गए।दरबार का कोना कोना संगीत में हो गया, कौन गा रहा है, कौन सुन रहा है। किसी को इसका ध्यान तक ना रहा,लगता था कि किसी ने सब पर जादू कर दिया है। संगीत लहरियों से प्राप्त आनंद से सबको संज्ञा शून्य कर दिया था।


संगीत के थमते ही लोगों ने आंखें खोल दी पर अगले ही क्षण उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।दरबार में हीरनो का एक झुंड बेगमों के गहनों को गले और सीनों में लटकाए खड़ा था। बेगम ने देखा तो उनकी चीख निकल गई,हिरणों की सुधि आई तो बे जल्दी कर भाग निकले और किले के पीछे जंगल में जाकर गायब से हो गए। वाह, वाह के स्वर से दरबार गूंज उठा। सहज गंभीर अकबर भी वाह-वाह कह उठा,तानसेन तो खुशी के मारे झूम उठा। उसे उस युवक से ऐसी संगत की आशा ना थी।


बैजू आसन से उठा। बोला - जहांपनाह अगर मियां तानसेन बेगमों के गहने मंगवा दे, तो मैं भी मजीरे निकाल दूं।


सुनते ही तानसेन का चेहरा फक हो गया, उसने चेहरा लटका लिया।


अकबर तानसेन की मजबूरी समझ गए, दरबारी बिल्कुल शांत होकर बैठे थे। उन सन्नाटे में उन की धड़कन बढ़ गई सन्नाटे को भंग करते हुए बैजू ने कहा - जहांपनाह! कला किसी की बपौती नहीं।


वह तो साधना की दासी है।मियां तानसेन ने संगीत को अपनी जायदाद समझ लिया था। यह संगीत कि यहां इति है या संगीत का अपमान। मैंने उसी अपमान का कलंक धोया,अब मियां तानसेन अपने घटिया गाने वालों ने को सजा-ए-मौत से छुटकारा दिला दें।


सुनकर तानसेन के दम में दम आया। बाबा जी के कदमों में झुका ही था कि बैजू ने उसे गले लगा लिया बोला मियां तानसेन या क्या करते हो हम दोनों गुरु भाई हैं और आप मुझसे बड़े हो।


बैजू जैसी उदारता देखकर तानसेन की आंखें सावन भादो की जैसी बरसने लगी।उसका सिर सदा सदा के लिए झुक गया।



Note- दोस्तों हमें कभी भी किसी चीज पर घमंड नहीं करना चाहिए हम ज्यादा होशियारी दिखाते हैं बल्कि हो सकता। उस सब्जेक्ट में हम इतना होशियार हो।


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